मेरे प्रिय पाठकगण इस कहानी के माध्यम से मैं आपके समक्ष उस स्वरूप को प्रदर्शित करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। रचनाकार समाज में एक आईना सदृश्य होता है। जिस प्रकार आईना सामने खड़े हुए व्यक्ति या समाज के प्रतिबिम्ब को प्रदर्शित करता है। ठीक उसी प्रकार एक रचनाकार समाज में व्याप्त कुरीतियों को आपके समक्ष प्रदर्शित करने का प्रयास कर रहा है। मेरी रचना का मुख्य उद्देश्य पाठकों के समक्ष समाज की कुरीतियों को प्रदर्शित करने का प्रयास करना है। जहाँ एक वर्ग अपने स्वार्थ के वशीभूत अपने ही भाइयों को समाज के बन्धन का हवाला देकर अपने ही वर्ग के लोगों को नीचा दिखाने की कोशिश करता है। एवं उनके ऊपर तरह-2 के मिथ्यारोप लगाकर घृणा एवं द्वेश की भावना रखता है। एवं उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करता है एवं उन पर जुर्म ढाता रहता है। वह यह भी भूल जाता है कि यदि यही व्यवहार मेरे साथ होता तो मेरे ऊपर इसका क्या असर होता।
प्रिय पाठकगण समाज के इने-गिने लोग समाज के बन्धन का हवाला देते हुए अपने ही भाइयों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं। वे अपने को स्वयंभू कर्णधार बनने का स्वांग रचते हैं; वे यह भी भूल जाते हैं कि कर्णधार वह होता है जो सुख-दुख में अपने भाइयों का साथ दे, ना कि उनका उपहास करें। उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर उनकी मदद करें, न की उनके ऊपर तरह-2 की बंदिशें लगाकर उन्हें समाज से बहिष्कृत व तिरष्कृत करें तथा उनके ऊपर तरह- तरह के जुर्म ढाये।
कर्णधार तो वह होता है जो कि दीन-दुखी एवं समाज से तिरष्कृत लोगों को गले लगाये तथा उनके सुख दुःख में सहयोग करें।"
"जन्म : 29 जनवरी 1952 प्रयागराज (उ.प्र.)
माता : स्व. श्रीमती पन्ना देवी
पिता : स्व. श्री भगवती प्रसाद मिश्र
शिक्षा : इण्टरमीडीएट डी.-इन मकै. इन्जी.
रिटायरमेंट : सब. इन्जी. एन.टी.पी.सी.लि. विन्ध्यनगर
सिंगरौली (उ.प्र.)"