चन्द्रकान्ता सन्तति-5 (Hindi Novel): Chandrakanta Santati-5 (Hindi Novel)

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हमारे पाठक ‘लीला’ को भूले न होगें। तिलिस्मी दारोगावाले बँगले की बर्बादी के पहिले तक इसका नाम आया है, जिसके बाद फिर इसका जिक्र नहीं आया*। (*देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, नौवाँ भाग, आठवाँ बयान।) लीला को जमानिया की खबरदारी पर मुकर्रर करके मायारानी काशीवाले नागर के मकान में चली गयी थी और वहाँ दरोगा के आ जाने पर उसके साथ इन्द्रदेव के यहाँ चली गयी। जब इन्द्रदेव के यहाँ से भी वह भाग गयी और दारोगा तथा शेरअलीखाँ की मदद से रोहतासगढ़ के अन्दर घुसने का प्रबन्ध किया गया जैसाकि सन्तति के बाहरवें भाग के तेरहवें बयान में लिखा गया है, उस समय लीला मायारानी के साथ थी, मगर रोहतासगढ़ में जाने से पहिले मायारानी ने उसे अपनी हिफाजत का जरिया बनाकर पहाड़ के नीचे ही छोड़ दिया था। मायारानी ने अपना तिलिस्मी तमंचा, जिससे बेहोशी के बारुद की गोली चलायी जाती थी, लीला को देकर कह दिया था कि मैं शेरअलीखाँ की मदद से और उन्हीं के भरोसे पर रोहतासगढ़ के अन्दर जाती हूँ, मगर ऐयारों के हाथ मेरा गिरफ्तार हो जाना कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि बीरेन्द्रसिंह के ऐयार बड़े ही चालाक हैं। यद्यपि उनसे बचे रहने की पूरी-पूरी तरकीब की गयी है, लेकिन फिर भी मैं बेफिक्र नहीं रह सकती, अस्तु यह तिलिस्मी तमंचा तू अपने पास रख और इस पहाड़ के नीचे ही रहकर हम लोगों के बारे में टोह लेती रह, अगर हम लोग अपना काम करके राजी-खुशी के साथ लौट आये तब तो कोई बात नहीं, ईश्वर न करे कहीं मैं गिरफ्तार हो गयी तो तू मुझे छुड़ाने का बन्दोबस्त कीजियो और इस तमंचे से काम निकालियो। इसमें चलानेवाली गोलियाँ और वह ताम्रपत्र भी मैं तुझे दिये जाती हूँ, जिसमें गोली बनाने की तरकीब लिखी हुई है

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June 2, 2017
It is my favourite book. I have read it more than ten times. Also i am a great fan of babu devaki nandan khatri.
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देवकी नन्दन खत्री

जन्म : १८ जून १८६१ (आषाढ़ कृष्ण ७ संवत् १९१८)। जन्मस्थान मुजफ्फरपुर (बिहार)।

बाबू देवकीनन्दन खत्री के पिता लाला ईश्वरदास के पुरखे मुल्तान और लाहौर में बसते-उजड़ते हुए काशी आकर बस गए थे। इनकी माता मुजफ्फरपुर के रईस बाबू जीवनलाल महता की बेटी थीं। पिता अधिकतर ससुराल में ही रहते थे। इसी से इनके बाल्यकाल और किशोरावस्था के अधिसंख्य दिन मुजफ्फरपुर में ही बीते।

हिन्दी और संस्कृत में प्रारम्भिक शिक्षा भी ननिहाल में हुई। फारसी से स्वाभाविक लगाव था, पर पिता की अनिच्छावश शुरू में उसे नहीं पढ़ सके। इसके बाद अठारह वर्ष की अवस्था में, जब गया स्थित टिकारी राज्य से सम्बद्ध अपने पिता के व्यवसाय में स्वतंत्र रूप से हाथ बँटाने लगे तो फारसी और अंग्रेजी का भी अध्ययन किया। २४ वर्ष की आयु में व्यवसाय सम्बन्धी उलट-फेर के कारण वापस काशी आ गए और काशी नरेश के कृपापात्र हुए। परिणामतः मुसाहिब बनना तो स्वीकार न किया, लेकिन राजा साहब की बदौलत चकिया और नौगढ़ के जंगलो का ठेका पा गए। इससे उन्हें आर्थिक लाभ भी हुआ और वे अनुभव भी मिले जो उनके लेखकीय जीवन में काम आए। वस्तुतः इसी काम ने उनके जीवन की दिशा बदली।

स्वभाव से मस्तमौला, यारबाश किस्म के आदमी और शक्ति के उपासक। सैर-सपाटे, पतंगबाजी और शतरंज के बेहद शौकीन। बीहड़ जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन खँडहरों से गहरा, आत्मीय लगाव रखनेवाले। विचित्रता और रोमांचप्रेमी। अद्भुत स्मरण-शक्ति और उर्वर, कल्पनाशील मस्तिष्क के धनी।

चन्द्रकान्ता पहला ही उपन्यास, जो सन् १८८८ में प्रकाशित हुआ। सितम्बर १८९८ में लहरी प्रेस की स्थापना की। ‘सुदर्शन’ नामक मासिक पत्र भी निकाला। चन्द्रकान्ता और चन्द्रकान्ता सन्तति (छः भाग) के अतिरिक्त देवकीनन्दन खत्री की अन्य रचनाएँ हैं : नरेन्द्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेन्द्र वीर या कटोरा-भर खून, काजल की कोठरी, गुप्त गोदना तथा भूतनाथ (प्रथम छः भाग)।

निधन : १ अगस्त, सन १९३१।

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