पसायदान Pasaydan

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স্ক্ৰীনশ্বটৰ প্রতিচ্ছবি
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এই এপ্‌টোৰ বিষয়ে

संत ज्ञानेश्वर विरचित ज्ञानेश्वरी या ग्रंथातील शेवटच्या -(ओवी १७९४ ते १८०२)- १८ व्या अध्यायाचे समापन पसायदान या प्रार्थनेने होते.

ज्ञानेश्वरीच्या सुरुवातीला वेदांनी सांगितलेल्या आणि आत्मरूपात वसलेल्या ज्या रूपाचे वर्णन करता करता, शेवटच्या अध्यायात ज्ञानेश्वर त्याच विश्वात्मक (विश्व व्यापक असून विश्वाहून निराळ्या) देवाला आपण केलेल्या ज्ञानेश्वरीरूपी वाग् यज्ञाचे फल स्वरूप म्हणून पसायदान (प्रसाद) मागताना म्हणतात-
जे खळांची व्यंकटी सांडो | तयां सत्कर्मीं रती वाढो || भूतां परस्परें जडो | मैत्र जीवांचें ||

ज्या व्यक्ती खळ (वाईट प्रवृत्तीच्या) आहेत त्यांच्यातील खलत्व (वाईट प्रवृत्ती) नुसतीच जावो (नष्ट होवो) नव्हे, तर त्यांची प्रवृत्ती सत्प्रवृत्तीत परावर्तित व्हावी आणि ह्याची फलश्रुती म्हणजे सर्वच व्यक्ती सर्वांचे मित्र होवोत ! { जेथे भगवंताने सुद्धा "विनाशायच दुष्कृताम्" ( दुष्टांचा नाश करण्यासाठी) मी जन्म घेतो असे म्हंटले, तेथे त्याही पुढे जाऊन ज्ञानेश्वरांनी असा "प्रसाद" मागितला} पसायदानामध्ये सर्व प्राणिमात्रांमध्ये प्रेमाची भावना निर्माण व्हावी व मनातील दुष्ट भावनांचा नाश व्हावा अशी विनंती ज्ञानेश्वर महाराज करतात.

दुरिताचें तिमिर जावो | विश्व स्वधर्म सूर्यें पाहो || जो जे वांछील तो ते लाहो | प्राणिजात ||३||

वेदांनी गायलेल्या "तमसो मा सद्गमय |" ज्याप्रमाणे आगीचा धर्म जाळणे, नदीचा प्रवाहित राहणे, त्याच प्रमाणे मानवाचा माणुसकीचा धर्म आपण मानला आणि त्याचा प्रत्यय प्रयेकाच्या जीवनात आला तर त्या धर्मरूपी सूर्याच्या प्रकाशाने विश्वातील प्रत्येकाचे जीवन उजळून निघेल. ह्याचा परिणाम असा होईल की, ज्याला ज्याला जे जे हवे ते मिळेल, कारण जर एका व्यक्तीची मागणी ही जर धार्मिक असेल तर, ती दुसऱ्या व्यक्तीचे कर्तव्य असेल आणि येथे तर "माउलींनी" 'प्राणिजात' असे बोलून जगातील यच्चयावत प्राणिमात्रांच्या धर्माची ग्वाही दिली आहे !

Reference :
https://mr.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A8
আপডে’ট কৰা তাৰিখ
১০-০৬-২০২৪

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