कुसुम कुमारी (Hindi Sahityas): Kusum Kumari (Hindi Novel)

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देवकी नन्दन खत्री का एक अनूठा उपन्यास... ठीक दोपहर का वक्त और गर्मी का दिन है। सूर्य अपनी पूरी किरणों का मजा दिखा रहे हैं। सुनसान मैदान में दो आदमी खूबसूरत और तेज घोड़ों पर सवार साये की तलाश और ठंडी जगह की खोज में इधर-उधर देखते घोड़ा फेंके चले जा रहे हैं। ये इस बात को बिलकुल नहीं जानते कि शहर किस तरफ है या आराम लेने के लिए ठंडी जगह कहां मिलेगी। घड़ी-घड़ी रूमाल से अपने मुंह का पसीना पोंछते और घोड़ा को एड़ लगाते बढ़े जा रहे हैं। इन दोनों में से एक की उम्र अठारह या उन्नीस वर्ष की होगी, दिमागदार खूबसूरत चेहरा धूप में पसीज रहा है, बदन की चुस्त कीमती पोशाक, पसीने से तर हो रही है, जड़ाऊ कब्जेवाली इसकी तलवार फौलादी जड़ाऊ म्यान के सहित उछल-उछलकर घोड़े के पेट से टक्कर मारती और चलने में घोड़े को तेज करती जाती है। इसका घोड़ा भी जड़ाऊ जीन से कसा और कीमती गहनों से भरा, अपने एक पैर की झांझ की आवाज पर मस्त होकर चलने में सुस्ती नहीं कर रहा था। ऐसे बांके बहादुर खुशरू दिलावर जवान को जो देखे वह जरूर यही कहे कि किसी राजा का लड़का है और शायद शिकार में भूला हुआ भटक रहा है।

Ratings and reviews

4.9
12 reviews
Rajmal Jat
March 29, 2020
very good
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Om Narayan
October 3, 2018
बहुत ही अच्छी पुस्तक है।
11 people found this review helpful
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H K TANDAN
December 10, 2019
अद्भुत...।
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About the author

देवकी नन्दन खत्री

जन्म :- 18 जून 1861 (आषाढ़ कृष्ण 7 संवत् 1918)।

जन्मस्थान :- मुजफ्फरपुर (बिहार)।

निधन :- 1 अगस्त, सन् 1913।

बाबू देवकीनन्दन खत्री के पिता लाला ईश्वरदास के पुरखे मुल्तान और लाहौर में बसते-उजड़ते हुए काशी आकर बस गए थे। इनकी माता मुजफ्फरपुर के रईस बाबू जीवनलाल महता की बेटी थीं। पिता अधिकतर ससुराल में ही रहते थे। इसी से इनके बाल्यकाल और किशोरावस्था के अधिसंख्य़ दिन मुजफ्फरपुर में ही बीते।

हिन्दी और संस्कृत में प्रारम्भिक शिक्षा भी ननिहाल में हुई। फारसी से स्वाभाविक लगाव था, पर पिता की अनिच्छावश शुरु में उसे नहीं पढ़ सके। इसके बाद अठारह वर्ष की अवस्था में, जब गया स्थित टिकारी राज्य से सम्बद्ध अपने पिता के व्यवसाय में स्वतंत्र रूप से हाथ बँटाने लगे तो फारसी और अंग्रेजी का भी अध्ययन किया। 24 वर्ष की आयु में व्यवसाय सम्बन्धी उलट-फेर के कारण वापस काशी आ गए और काशी नरेश के कृपापात्र हुए। परिणामतः मुसाहिब बनना तो स्वीकार न किया, लेकिन राजा साहब की बदौलत चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठेका पा गए। इससे उन्हें आर्थिक लाभ भी हुआ और वे अनुभव भी मिले जो उनके लेखकीय जीवन में काम आए। वस्तुतः इसी काम ने उनके जीवन की दिशा बदली।

स्वभाव से मस्तमौला, यारबाश किस्म के आदमी और शक्ति के उपासक। सैर-सपाटे, पतंगबाजी और शतरंज के बेहद शौकीन। बीहड़ जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन खँडहरों से गहरा, आत्मीय लगाव रखने-वाले। विचित्रता और रोमांचप्रेमी। अद्भुत स्मरण-शक्ति और उर्वर, कल्पनाशील मस्तिष्क के धनी।

चन्द्रकान्ता पहला ही उपन्यास, जो सन् 1888 में प्रकाशित हुआ। सितम्बर 1898 में लहरी प्रेस की स्थापना की। ‘सुदर्शन’ नामक मासिक पत्र भी निकाला।

रचनाएँ :-

चन्द्रकान्ता और चन्द्रकान्ता सन्तति (छः भाग)

नरेन्द्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेन्द्र वीर या कटोरा-भर खून, काजल की कोठरी, गुप्त गोदना तथा भूतनाथ (प्रथम छः भाग)।

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