पुराण पहेली: रूपात्मक अध्यात्मविज्ञान की पराकाष्ठा

· Bhishm Sharma
4.6
5 reviews
Ebook
253
Pages

About this ebook

पुराने समय में तो भौतिक विज्ञान आम लोगों की समझ से परे होता था, फिर कुंडलिनी योग जैसा सूक्ष्म व पारलौकिक विज्ञान उन्हें कैसे समझ आ सकता था। इसलिए कुंडलिनी योग का ज्ञान केवल सम्पन्न वर्ग के कुछ गिनेचुने लोगों को ही होता था। वे चाहते थे कि आम लोग भी उसे प्राप्त करते, क्योंकि आध्यात्मिक मुक्ति पर मानवमात्र का अधिकार है। पर वे उन्हें सीधे तौर पर कुंडलिनी योग को समझाने में सफल नहीं हुए। इसलिए उन्होंने कुंडलिनी योग को रूपात्मक व मिथकीय कथाओं के रूप में ढाला, ताकि लोग उन्हें रुचि लेकर पढ़ते, इससे धीरे-धीरे ही सही, कुंडलिनी योग की तरफ उनका झुकाव पैदा होता गया। उन कथाओं के संग्रह पुराण बन गए। उन पुराणों को पढ़ने से अनजाने में ही लोगों के अंदर कुंडलिनी का विकास होने लगा। इससे उन्हें आनन्द आने लगा, जिससे उन्हें पुराणों की लत लग गई। इतने प्राचीन ग्रँथों के प्रति तब से लेकर आज के आधुनिक युग तक जो लोगों का आकर्षण है, यह इसी कुंडलिनी-आनन्द के कारण प्रतीत होता है। पुराण पढ़ने व सुनने वाले लोगों के बीच में जिसका दिमाग तेज होता था, वह एकदम से कुंडलिनी योग को पकड़ कर अपनी कुंडलिनी को जागृत भी कर लेता था। इस तरह से पुराण प्राचीन काल से लेकर मानवता की अप्रतिम सेवा करते आ रहे हैं। इसी तरह, पुराने जमाने में रहस्यात्मक विद्याओं को सीधे तौर पर सार्वजनिक नहीँ किया जाता था। इसलिए उन्हें रूपक के रूप में समझाया गया है, इसीलिए ऐसी कई विद्याओं को गुह्य विद्या भी कहते हैं। इसलिए रूपक कथाओं के माध्यम से तंत्र को अप्रत्यक्ष रूप से लोगों के अवचेतन मन में डालने का प्रयास किया होगा, और आशा की होगी कि भविष्य में इसे डिकोड करके इसके हकदार लोग इससे लाभ उठाएंगे। एक प्रकार से गुप्त गुफा में खजाने को सुरक्षित कर लिया गया, और रूपक कथा के रूप में उस ज्ञान-गुफा का नक्शा भूलभूलैया वाली पहेली के रूप में छोड़ दिया। फिल्मों में दिखाए जाने वाले ऐसे मिथकीय खोजी अभियान इसी रहस्यात्मक तंत्र विज्ञान को अभिव्यक्त करने वाली मनोवैज्ञानिक चेष्ठा है। इसीलिए वैसी फिल्में बहुत लोकप्रिय होती हैं।

 रूपकों से आध्यात्मिक विषयों को भौतिकता, सरलता, रोचकता, सामाजिकता और वैज्ञानिकता मिलती है। इसके बिना अध्यात्म बहुत नीरस होता। कई लोग अनेक प्रकार के कुतर्कों से रूपकता का विरोध करते हैं। इसे रूढ़िवादिता, कपोल कल्पनाशीलता आदि माना जाता है। बेशक आजके विज्ञानवादी युग में ऐसा लगता हो, पर प्राचीन काल में रूपकों ने मानवमात्र को बहुत लाभ पहुंचाया है। यदि शिव के स्थान पर निराकार ब्रह्म कहा जाए तो कितना उबाऊ लगेगा। मस्तिष्क और सहस्रार शब्द में वो सरसता कहाँ है, जो उनकी जगह पर हिमालय पर्वत और कैलाश पर्वत लिखने से प्राप्त होती है। इसी तरह कुंडलिनी शब्द भी उतना रोचक नहीं लगता, जितना उसकी जगह पर माता पार्वती या सीता लगता है। फिर भी आजकल के तथाकथित आधुनिक व बुद्धिप्रधान समाज की ग्राह्यता के लिए आध्यात्मिक रूपकता को रहस्योद्घाटित करते हुए यथार्थ भी लिखना पड़ता है। 

रूपक वैज्ञानिक सत्य को नहीं बदल सकते। रूपकों का अपना कोई गणित नहीं होता। रूपक तो केवल सत्य को समझाने के लिए बनाए गए होते हैं, जो वैज्ञानिक घटनाओं पर आधारित होते हैं। कहने का तात्पर्य है कि अध्यात्मवैज्ञानिक घटना से रूपक बने, न कि मनगढ़ंत रूपक से कोई अध्यात्मवैज्ञानिक घटना घटित हुई। इतने अच्छे रूपक बनाने वाले ऋषिमुनि कोई वनवासी नहीँ हो सकते, जैसी कि कई जगह भ्रांत धारणा है। वे दुनियादारी में सबसे ज्यादा कढ़े हुए और गढ़े हुए होते थे। बहुत सुंदर रूपक कथाएँ हैं पुराणों में। रूपात्मक कथाओं में मन के विभिन्न हिस्सों को विभिन्न व्यक्तियों के रूप में दर्शाने की कला का बहुत महत्त्व होता है। सभी पुराण कुंडलिनी योग का मिथकीय व रूपात्मक वर्णन करते प्रतीत होते हैं। मुझे लगता है कि कथा सुनाते समय मूल कथा के साथ उसमें दिए गए रूपक के रहस्य को भी डिकोड करके सुनाना चाहिए। इससे श्रोताओं को अधिक लाभ मिलेगा। अगर नुक्सान की बात करें तो रूपक बनाने से यह मामुली सा नुकसान हुआ होगा कि लोगों को पता ही नहीं चला होगा कि क्या रूपक है और क्या असली। प्रस्तुत पुस्तक इसी संदर्भ में बनी है, जो पुराणों के रूपकों का वैज्ञानिक व युक्तियुक्त विश्लेष्ण करती है। बहुत न लिखते हुए इसी आशा के साथ विराम लगाता हूँ कि प्रस्तुत पुस्तिका अन्तरिक्षप्रेमी व अध्यात्मप्रेमी पाठकों की आकांक्षाओं पर खरा उतरेगी।

 

 

 

 


 



Ratings and reviews

4.6
5 reviews
Bhuro Puna
January 2, 2024
Bakar Koi Na pimple karodiya Te number bhejiye
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Tilak Raj
March 4, 2024
बहुत ही अच्छी पुस्तक है जी।
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About the author

प्रेमयोगी वज्र का जन्म वर्ष 1975 में भारत के हिमाचल प्रान्त की एक सुन्दर व कटोरानुमा घाटी में बसे एक छोटे से गाँव में हुआ था। वह स्वाभाविक रूप से लेखन, दर्शन, आध्यात्मिकता, योग, लोक-व्यवहार, व्यावहारिक विज्ञान और पर्यटन के शौक़ीन हैं। उन्होंने पशुपालन व पशु चिकित्सा के क्षेत्र में भी प्रशंसनीय काम किया है। वह पोलीहाऊस खेती, जैविक खेती, वैज्ञानिक और पानी की बचत युक्त सिंचाई, वर्षाजल संग्रहण, किचन गार्डनिंग, गाय पालन, वर्मीकम्पोस्टिंग, वैबसाईट डिवेलपमेंट, स्वयंप्रकाशन, संगीत (विशेषतः बांसुरी वादन) और गायन के भी शौक़ीन हैं। लगभग इन सभी विषयों पर उन्होंने दस के करीब पुस्तकें भी लिखी हैं, जिनका वर्णन एमाजोन ऑथर सेन्ट्रल, ऑथर पेज, प्रेमयोगी वज्र पर उपलब्ध है। इन पुस्तकों का वर्णन उनकी निजी वैबसाईट demystifyingkundalini.com पर भी उपलब्ध है। वे थोड़े समय के लिए एक वैदिक पुजारी भी रहे थे, जब वे लोगों के घरों में अपने वैदिक पुरोहित दादा जी की सहायता से धार्मिक अनुष्ठान किया करते थे। उन्हें कुछ उन्नत आध्यात्मिक अनुभव (आत्मज्ञान और कुण्डलिनी जागरण) प्राप्त हुए हैं। उनके अनोखे अनुभवों सहित उनकी आत्मकथा विशेष रूप से “शरीरविज्ञान दर्शन- एक आधुनिक कुण्डलिनी तंत्र (एक योगी की प्रेमकथा)” पुस्तक में साझा की गई है। यह पुस्तक उनके जीवन की सबसे प्रमुख और महत्त्वाकांक्षी पुस्तक है। इस पुस्तक में उनके जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण 25 सालों का जीवन दर्शन समाया हुआ है। इस पुस्तक के लिए उन्होंने बहुत मेहनत की है। एमाजोन डॉट इन पर एक गुणवत्तापूर्ण व निष्पक्षतापूर्ण समीक्षा में इस पुस्तक को पांच सितारा, सर्वश्रेष्ठ, सबके द्वारा अवश्य पढ़ी जाने योग्य व अति उत्तम (एक्सेलेंट) पुस्तक के रूप में समीक्षित किया गया है। गूगल प्ले बुक की समीक्षा में भी इस पुस्तक को फाईव स्टार मिले थे, और इस पुस्तक को अच्छा (कूल) व गुणवत्तापूर्ण आंका गया था। इस पुस्तक का अंग्रेजी में मिलान "Love story of a Yogi- what Patanjali says" पुस्तक है। प्रेमयोगी वज्र एक रहस्यमयी व्यक्ति है। वह एक बहुरूपिए की तरह है, जिसका अपना कोई निर्धारित रूप नहीं होता। उसका वास्तविक रूप उसके मन में लग रही समाधि के आकार-प्रकार पर निर्भर करता है, बाहर से वह चाहे कैसा भी दिखे। वह आत्मज्ञानी (एनलाईटनड) भी है, और उसकी कुण्डलिनी भी जागृत हो चुकी है। उसे आत्मज्ञान की अनुभूति प्राकृतिक रूप से / प्रेमयोग से हुई थी, और कुण्डलिनी जागरण की अनुभूति कृत्रिम रूप से / कुण्डलिनी योग से हुई। प्राकृतिक समाधि के समय उसे सांकेतिक व समवाही तंत्रयोग की सहायता मिली, जबकि कृत्रिम समाधि के समय पूर्ण व विषमवाही तंत्रयोग की सहायता उसे उसके अपने प्रयासों के अधिकाँश योगदान से प्राप्त हुई।  

अधिक जानकारी के लिए, कृपया निम्नांकित स्थान पर देखें-

https://demystifyingkundalini.com/

   


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