Ek Sikshika Ma

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E-စာအုပ်
94
မျက်နှာ

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आज तक संस्मरण पढ़ें बहुत, लेकिन जब अपने लिखने बैठा, तो पता चला यह विधा कितनी कठिन है। पता ही नहीं चलता, ये तो माँ की अलौकिक शक्ति थी ,जो उन्होंने इन संस्मरणों को ख़ुद मेरे हाथों से ऐसे लिखवाया कि अक्षरों का अम्बार शब्दों में परिवर्तित होता चला गया ! इसलिए, इसमें शब्दों के अर्थों में कहीं- कहीं मैं भी समझ नहीं पा रहा हूँ कि यह कौन कह रहा है । बीच-बीच में इस संस्मरण संग्रह को लिखने में मेरी सहायता और सहयोग मेरी पत्नी वीणा ने की। मैं उससे एक-एक शब्द की मात्राएं पूछता । वह कितनी भी व्यस्त रही, हमेशा अपनी राय से वह सही दिशा में प्रोत्साहित करती रही । इन संस्मरणों की शृंखला सच मायने में मैंने अपना जीवन जो जिया, उसमें पल-प्रतिपल मेरी धड़कन की हर आवाज़ में वो रही ! साथ-साथ इस कोरोना महामारी में न जाने अपने कितने बिछड़े और उन बिछड़ने वालों के बीच मेरी माँ, जो कोरोना महामारी से पूर्व ही हम से बिछड़ गयीं थी। वह हमेशा सूक्ष्म रूप में मेरे साथ रहकर मेरा साहस बढ़ाती रही। साहित्यिक और आध्यात्मिक कृपा दृष्टि तो जबसे गुरुदेव आचार्य महामंडलेश्वर अवधेशानंद जी महाराज, दूरदर्शन पर आस्था चैनल में आते, तो माँ पुकारती तेरे गुरुदेव आ गये, गुरुदेव के पीछे चित्रों में हंस तो कभी गंगा तो कभी-कभी ऐसे चित्र अंतरिक्ष में सौर मण्डल मानों दिन में ही शोभायमान हो रहा हो । यह सब गुरुजी की कृपा दृष्टि है। मेरी माताजी की एक आदत थी कि वे आस्था चैनल लगा कर रखती और एक डायरी और पैन हमेशा अपने मेज पर रखती और जब गुरुदेव प्रवचन करते तो उनमें कठिन शब्द वह नोट करती रहती। फिर कभी-कभी मुझसे मजाक करती देख तेरे गुरुदेव तो पर्ययायवाची शब्दों का शब्दकोष हैं। अक्षरों के समुद्र से अक्षर को आँख के इशारे से बुलाते और उसे अमरत्व प्रदान करते हैं। बस गुरुदेव की कृपा बनी रहे !

लिखने का दूसरा कारण रहा कोरोना, इसने नुकसान तो पहुंचाया मेरे कई रिश्तेदार एवं दोस्त कोरोनाकाल में अपनी जिंदगी की यात्रा अधूरी छोड़ चले गए। वह भी मन को कचोटता रहा कि सुख में तो एक बार सोच सकता है, लेकिन दुःख में न जाना मरते दम तक मन में एक टीस सी रहेगी ।

बस मेरे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जो श्रेष्ठ-जन और मेरे शुभचिंतकों में आचार्य महामंडलेश्वर रामेश्वरानंद सरस्वती जी महाराज, आचार्य हरिहरानंद जी, आचार्य एवं भागवताचार्य रविदेव जी महाराज, महंत दिनेश दास जी महाराज, महन्त सुतिक्ष्ण मुनि जी महाराज, दादा गजेन्द्र खण्डूरी एवं आशू चौधरी जिन्होंने प्रेरणा दी। माननीय रमेश पोखरियाल निशंक जी का साहित्य, विशेषतः उनकी कविताएं, जिससे बहुत कुछ सीखने को मिला । अनुज डा.सम्राट् सुधा के संस्मरणों के साथ-साथ उनकी कविताओं का संग्रह किताब "प्यास देखता हूं", मुख्य रूप से मेरे लिखने में सहायक रही। गीत में मेरे गुरु रमेश रमन जी,डा.पदम प्रसाद सुवेदी जी, डा. रमेश चंद शर्मा जी, विजय थपलियाल जी, और मेरे परिवार में बड़े भाई दीपक बिष्ट जी, अनुज राम और उनका परिवार, साथ ही मेरी बहन शबनम और उनके पति रमेश जी उनका परिवार और एक पात्र मनीष उर्फ मन्नी दाई, जबकि वह है मेरा भतीजा और मेरा प्रिय गांव चिड़ौवाली, जिसने मुझे संस्कार और सम्मान के साथ साथ मुझे संस्कृति को सहेजने की शक्ति दी ! एक सरकारी, आध्यात्मिक, सामाजिक, पुजारी तथा भागदौड़ में मुझसे दुगना उत्साह ,जिनकी प्रेरणा ने मुझे बहुत ही प्रोत्साहित किया कि दुनिया बहुत बड़ी है, उसमें तुम्हारा किरदार बहुत छोटा है, लेकिन उस किरदार को तुम अच्छी तरह निभाओ, तो बड़ी दुनिया भी तुम्हें छोटी लगने लगेगी और तुम सबके लिए एक मिसाल बनोगे, ऐसे मेरे लिए ठीक उसी प्रकार मेरे अग्रज अरूण कुमार पाठक जी हैं, जिनकी प्रेरणा से मैं यह पुस्तक लिख पाया।

  मेरे दो पुत्र अभय और अक्षय और एक पुत्रवधू रोशनी के साथ मेरी पोती शांभवी जो मेरे लिए माँ स्वरूप है, इसलिए अपने अपने भाग्य हैं और वह मुझे माँ से भी अधिक प्यार करती है। मैं अब अपनी पोती को अपनी गोद में लेकर ऐसे घूमता हूँ, जैसे माँ मुझे लेकर घूमती थी....

बस इन्हीं भावनाओं के साथ यह पुस्तक 'एक शिक्षिका माँ ' आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ !


संजय 'दे-हरी' 

लेखक

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