PAKALYA

· MEHTA PUBLISHING HOUSE
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ଏହି ଇବୁକ୍ ବିଷୟରେ

आपण जिला शहरी संस्कृती म्हणतो, तिचा अभिजात वाङ्मयाशी अभेद्य असा संबंध असतो, ही धारणा मुळातच चुकीची आहे. शब्द हे वाङ्मयाचे माध्यम असल्यामुळे रसिकतेचा शिक्षणाशी निकटचा संबंध असला पाहिजे, असे आपण गृहीत धरतो. पण शिक्षण अनेकदा पढीक रसिक निर्माण करते. तंत्राचा, शास्त्राचा आणि तशाच प्रकारच्या शेकडो प्रश्नांचा काथ्याकूट करण्यातच अशा पढीकारांचा वेळ जातो. सवयीने त्यांना त्यातच आनंद वाटतो; पण खरी रसिकता असल्या गोष्टीचे स्तोम माजवीत नाही. ती वाङ्मयाच्या आत्म्याकडेच धाव घेते. विद्यार्थांच्या ठिकाणी ललित वाङ्मयाचा आस्वाद घेण्याची शक्ती फार मोठ्या प्रमाणात असते. वाङ्मयाच्या जगाशी एकरूप व्हायला लागणारी स्वौर कल्पकता हा कुमारवयाला मिळालेला एक वर आहे. मुक्त आणि अनंत अशा आकाशाच्या पोकळीत उडत जाण्यात त्यांच्या मनांना आनंद होतो. अशा विद्यार्थांसाठी कै. वि. स. खांडेकरांनी स्वत:च्या दीड-दोनशे कथांमधून पंधरा कथा साक्षेपाने निवडून काढल्या आणि त्या संग्रहाला अन्वर्थक नाव दिले : "पाकळ्या'

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