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संजय ग्रोवर लीक से लड़ते ग़ज़लकार हैं। इनकी ग़ज़लें अल्फ़ाज़ और अंदाज़ की कसीदाकारी में न फंसकर जिंदगी की सच्चाइयों को बाहर निकालने के लिए जद्दोजहद करती दिखाई देती हैं। ये सच को झूठ से, असली को नक़ली से, शराफ़त को कपट से आगाह करती हैं, तो कई बार एकाकी अंतर्मन को खंगालती, धोती, सुखाती नजर आती हैं। सांप्रदायिक विभेद, जातिगत दंभ और कुरीतियों के विरुद्ध तो ये अत्यंत मारक और पैनी धार आख्तियार कर लेती हैं।
संजय की रचनाओं को ब्लॉग और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पढ़ने वाली पीढ़ी में बहुत कम लोग जानते होंगे कि दो-ढाई दशक पहले इनकी ग़ज़लों ने देश की लगभग सभी अग्रणी पत्र-पत्रिकाओं में अच्छी पैठ बना रखी थी और ये हिंदी ग़ज़ल के सुपरिचित नामों में शुमार रहे हैं। हालांकि लेखन को पेशेवर मायनों में वह अनवरत या झटपटवादी परिपाटी से नहीं जोड़ पाए और बीच के कई वर्षों में बहुत कम लिखा या गायब से रहे। छपने-छपाने की होड़ में पड़ना इनकी फ़ितरत नहीं है, शायद इसीलिए हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में सुपरिचित ग़ज़लकार के रूप में जगह बनाने के क़रीब एक दशक बाद वर्ष 2000 में इनका पहला ग़ज़ल-संग्रह ‘खुदाओं के शहर में’ आदमी प्रकाशित हुआ। इसकी दर्जनों ग़ज़लें सामाजिक कसौटी पर समय की सीमा को पार कर आज भी प्रासंगिक बनी हुई हैं, जिन्हें हाल ही में संजय ने कुछ नई ग़ज़लों के साथ ई-बुक का रूप दिया है और वे ऑनलाइन उपलब्ध हैं। उसके बाद के संग्रह उन्होंने डिजिटल रूप में ही प्रकाशित किये हैं। ट्वीटर और फेसबुक पर वनलाइनर पोस्ट के जमाने में संजय ने भी सोशल मीडिया पर दस्तक दी है और कई बार एकाध शेर के जरिए भी अपने दिल की बात रख देते हैं।
एक ग़ज़ल में वह कहते हैं-
‘ या तो मैं सच कहता हूं
या फिर चुप ही रहता हूं ’
और सही मायनों में यही उनका रचनात्मक व्यक्तित्व है। उन्होंने सामाजिक मिथकों, पाखंड और दिखावटी जीवन मूल्यों पर करारी चोट की है। वह झूठ को उसकी आखिरी परत तक छीलते नज़र आते हैं।
मसलन,
‘सच के बारे में झूठ क्या बोलूं,
सच भी झूठों के काम आना है’
या फिर
‘सच जब अपने आप से बातें करता है
झूठा जहां कहीं भी हो वह डरता है’
‘मोहरा, अफ़वाहें फैलाकर,
बात करे क्या आंख मिलाकर
औरत को मां बहिन कहेगा,
लेकिन थोड़ा आंख दबाकर ’
उन्होंने अपनी ग़ज़लों में वैचारिक और चारित्रिक दोहरेपन की भी खूब ख़बर ली है। जहां कहीं विरोधाभास मिला उसे शेर का ज़रिया बना डाला। इसकी बानगी के तौर पर कुछ ग़ज़लों का एक-एक मतला हाजिर है-
‘पद सुरक्षा धन प्रतिष्ठा हर तरह गढ़ते रहे
और फिर बोले कि हम तो उम्र भर लड़ते रहे’
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‘अपनी तरह का जब भी उन्हें माफ़िया मिला
बोले उछलके देखो कैसा काफ़िया मिला’
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‘दिखाने को उठना अकेले में गिरना
इसी को बताया है पाने की दुनिया’
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‘बिल्कुल ही एक जैसी बातें बोल रहे थे
वे राज़ एक दूसरे के खोल रहे थे’
संजय ने सामाजिक रूढ़ियों, स्वार्थपरक रस्मो-रिवाज़ और बनावटी मर्यादा के जाल में कसमसाते जीवन का बड़ी संजीदगी से चित्रण किया है।
‘ लड़के वाले नाच रहे थे, लड़की वाले गुमसुम थे
याद करो उस वारदात में अक्सर शामिल हम तुम थे’
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‘ नम्र लहज़ों के लिफ़ाफ़ों में जदीदे-मुल्क़
पकड़े जाते हैं हमेशा कन्यादानों में
‘आन को दें ईमान पे तरजीह वाह रे वाह
वहशी को इंसान पे दरजीह वाह रे वाह’
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नाक पकड़कर घूम रहे थे सदियों से
अंदर से जो खुद पाख़ाने निकले हैं
सांप्रदायिकता, जातिवाद और इनके राजनीतिकरण को लेकर संजय बेहद सचेत और सक्रिय नज़र आते हैं। वह शेर दर शेर इनकी जहरीली प्रवृत्तियों को उजागर करते रहे हैं। यह उनके लेखन और कृतित्व के केंद्रीय विषयों में रहा है।
‘हिंदू कि मुसलमां, मुझे कुछ याद नहीं है
है शुक्र कि मेरा कोई उस्ताद नहीं है’
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‘छोटे बच्चों को सरेआम डराया तुमने
ऐसे हिंदू औ’मुसलमान बनाया तुमने ‘
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‘काटने की, बांटने की बात छोड़ेंगे नहीं
आदमियत छोड़ देंगे जात छोड़ेंगे नहीं’
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न मद्रासी में रहता हूं न पंजाबी में रहता हूं
यूं ताले तो बहुत हैं मैं मगर चाबी में रहता हूं
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तो क्या संजय ग्रोवर चरम यथार्थ, आक्रोश, निराशा, बेचैनी और वैचारिक अवसाद की ग़ज़लग़ोई करते हैं? ऐसा नहीं लगता। उनके कई शेर अंधेरे में दिए जलाते, उम्मीदों को जगाते और संघर्ष का हौसला बढ़ाते नजर आते हैं। वह कहते हैं-
‘अपनी आग बचाए रखना,
सही वक़्त जब आए, रखना
खिसक रही हों जब बुनियादें,
सच्चाई के पाए रखना’
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‘दर्द को इतना जिया कि दर्द मुझसे डर गया
और फिर हंसकर के बोला यार मैं तो मर गया’
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ऐसा नहीं कि भीड़ में शामिल नहीं हूं मैं
लेकिन धड़कना छोड़ दूं वो दिल नहीं हूं मैं
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‘मौत से पहले मौत क्यों आए
अपनी मर्ज़ी का कुछ किया जाए’।
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संजय ने उस दौर में ग़ज़लगोई शुरू की थी, जब दुष्यंत कुमार की नींव पर हिंदी ग़ज़लकारों की नई पीढ़ियां अपनी ईंटें जमातीं आ रही थीं। उर्दू काव्यभाषा के संस्कार को हिन्दी में लेकर चलने का जोखिम यह भी है कि आपको टुटपूंजिया कवि के रूप में नज़रअंदाज़ कर दिया जाए। लेकिन संजय ने अपने संकोची स्वभाव, अनौपचारिक लेखन प्रवृत्तियों और अनियमित रचनाकर्म के बावजूद हिंदी ग़ज़ल में न सिर्फ अपना स्पेस हासिल किया, बल्कि पहचान भी बनाई है। वैसे तो वह ग़ज़ल में भाषिक-विधान और संरचना को लेकर काफ़ी सतर्क दिखते हैं, लेकिन विचारों के आगे वह शिल्प को तरजीह नहीं देते। कई शेर में छंद और लयबद्दता को दरकिनार करते और सीधे अपनी बात कहते नज़र आते हैं।
प्रमोद राय
ABOUT the AUTHER लेखक के बारे में
ʘ SANJAY GROVER संजय ग्रोवर :
ʘ सक्रिय ब्लॉगर व स्वतंत्र लेखक.
ʘ Active Blogger and Freelance Writer.
ʘ मौलिक और तार्किक चिंतन में रुचि.
ʘ Inclined toward original and logical thinking.
ʘ नये विषयों, नये विचारों और नये तर्कों के साथ लेखन.
ʘ loves writing on new subjects with new ideas and new arguments.
ʘ फ़ेसबुक और ट्विटर पर भी सक्रिय.
ʘ Also active on Facebook and Twitter.
ʘ पत्र-पत्रिकाओं में कई व्यंग्य, कविताएं, ग़ज़लें, नारीमुक्ति पर लेख आदि प्रकाशित.
ʘ Several satires, poems, ghazals and articles on women's lib published in various journals.
ʘ बाक़ी इन लेखों/व्यंग्यों/ग़जलों/कविताओं/
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