Vaha Taan Kahan Se Aayi: Vaha Taan Kahan Se Aayi: A Journey into the Unknown”

· acarya Janakivallabha Sastri sa?cayita 2-кітап · Prabhat Prakashan
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जानकीवल्लभ शास्त्रीजी ने कविता की नई आत्मा गढ़ी है। इस आत्मा में प्रकाश और लय की भाषा निहित है। अमृत विचारों से अपने साहित्य को श्रीसंपन्न करते हुए आशा और विश्‍वास का सूर्य उगाने का काम इन्होंने लगातार किया। अडिग आस्था की स्थायी भाव-संपदा से भरी हुई इनकी कविताएँ पीढि़यों को सांस्कारित करने की अकूत क्षमता का हुनर; भाषा की तमीज और कहने का कौशल कैसे विकसित हो इसका ज्ञान कराती इनकी रचनाएँ सतत प्रवाहित एक सम्यक् सम्वादी की भूमका का निर्वाह करती है। कविता को कविता की दृ‌ष्‍ट‌ि से देखने और पढ़ने के बाद ही समझने का प्रयास बहुत दूर तक सफल होता है। शास्त्रीजी के शब्द ही नहीं चिहन भी बोलते हैं। संघटना ही नहीं संरचना भी संवाद करती है। कविता में अंतर्निहित लय का संस्पर्श अर्थ को विस्तार देता है। बिना लय से जुड़े हुए शास्त्रीजी की रचनाओं को पूरी इमानदारी और गहराई से नहीं समझा जा सकता है। शास्त्रीजी के गीत उनकी आत्मा की सृजनात्मक बेचैनी की तीव्र लयात्मक प्राण-चेतना है। उनका सृजन कोई उच्छवास नहीं कि अनछुआ रह जाए। वे तो गान में प्राण की झलक देखने के आग्रही हैं। सुप्रसिद्ध गीत ‘बाँसुरी’ की यह पंक्‍त‌ियाँ— ‘‘मसक-मसक रहता मर्म-स्थल/मर्मर करते प्राण/कैसे इतनी कठिन रागिनी/ कोमल सुर में गाई/किसने बाँसुरी बजाई?’’ शास्त्रीजी की रचना-प्रक्रिया को उजागर करती है। शास्त्रीजी के गीत गीत नहीं गीता है। वे शब्द नहीं मंत्र लिखते रहे।

Авторы туралы

आचार्य जानकीवल्लभ शास्‍त्री जन्म : माघ शुक्ल द्वितीया 1916। विलक्षण प्रतिभा-संपन्न आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का आवास ‘निराला निकेतन’ साहित्य, संस्कृति, कला-साधकों के लिए तीर्थस्थल है। आचार्यश्री की साधना ने इसे सिद्ध और मुजफ्फरपुर (बिहार) को प्रसिद्ध किया। विभिन्न विधाओं में निरंतर लिखते हुए कई दर्जन पुस्तकों के लेखक शास्त्रीजी मृत्युपर्यंत प्रकृति और मनुष्य के साथ ही मानवेतर प्राणियों को भी स्नेह-सिंचित करते रहे। ‘कालिदास’, ‘राधा’, ‘हंसबलाका’, ‘कर्मक्षेत्रे मरुक्षेत्रे’ जैसी कृतियाँ अपनी विषय-वस्तु और प्रतिपादन शैली के कारण कालजयी हैं। कई सम्मानों-पुरस्कारों से अलंकृत शास्त्रीजी का स्वाभिमानी व्यक्‍त‌ि‍त्व साधकों के लिए प्रेरक-संबल रहा है। लेखक, चिंतक, मनीषी और ऋषि आचार्यजी कई पीढि़यों के मार्गदर्शक और निर्माता रहे हैं। संस्कृत के प्रकांड पंडित और कवि शास्त्रीजी अंग्रेजी तथा उर्दू के विद्वान् अध्येता थे। स्मृति शेष : 7 अप्रैल, 2011 । संचयिता के संपादक डॉ. संजय पंकज हिंदी के सम्मानित कवि-गीतकार हैं। इनकी गद्य-पद्य की कई कृतियाँ प्रकाशित हैं।

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