अपने कहे हुये को लेकर मुझे ये मुग़ालता क़तई नहीं है कि मैंने कोई कारनामा कर डाला है। पिछले 25-30 वर्ष में परवान चढ़ी, ग़ज़लों से मुहब्बत की छुटपुट मगर ईमानदार कोशिशें भर हैं ये अश्आर। जि़न्दगी में तरतीब कभी रही नहीं, सो ख़याल आया कि कम-अज़-कम अहसास की बिखरी हुई शुआओं को रौशनदान दे दिया जाये ताकि सनद रहे और अपनों के काम आये। मैं कोई साधु-महात्मा तो हूँ नहीं कि अपने मन में बैठे लालची से आपकी बात न कराऊँ। ये लालची कहता है कि काश! जैसे मैंने अच्छी-अच्छी ग़ज़लें सुनी हैं, बेहतरीन शे’रों पर दीवाना होता रहा हूँ, उसी तरह इस संग्रह का एक भी शे’र, एक भी मिसरा पढ़ने वालों को पसन्द आ जाये तो ये भी फूला न समाये। इतना लालच तो बनता ही है...।