यदि सत्य एक तो मतभेद क्यों? सत्य जानने वालों के मध्य कभी मतभेद नहीं हो सकता। शिव, कृष्ण, मुहम्मद, नानक, बुद्ध एवं ईसा आदि सभी ने सत्य को जाना। यदि ये सभी एक साथ होते तो क्या आपस में झगड़ते? वे एक दूसरे के प्रेम में आनन्द विभोर हो उठते एवं उनके भीतर से अश्रुधारा बह उठती। जैसे प्रेमी आपस में मिलते ही गद-गद हो उठते हैं। उनकी आँखें खुशी से छलक जाती हैं। परन्तु इन्हीं महापुरुषों की इबादत करने वाला मनुष्य एक दूसरे का शत्रु बन चुका है। यहाँ तक कि साधु, सन्यासियों में भी गुट् बन चुके हैं। गुटों का बनना दर्शा रहा है कि वे अभी सत्य से दूर हैं। जो आपस में ही झगड़ रहे हैं, वह भला समाज का मार्ग दर्शन कैसे कर सकते हैं? मनुष्य विचारों से असहमत हो सकता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि एक दूसरे के जान के दुश्मन हो जाएं, इन्सानियत के दुश्मन बन जाएं, संवेदनहीन होते चले जाएं। बुद्धिमान एवं विचारशील व्यक्ति असहमत होने पर संवाद करते हैं। सहमत होने पर अन्य विचारधारा को स्वीकार करने से भी पीछे भी नहीं हटते। यही बुद्धिजीवियों की पहचान है।