संसार के सभी धर्मों में ईशस्तवन या ईश्वर के महिमागान को उपासना का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। स्मरणातीत काल से अगणित भक्त-साधक ईश्वरप्रेम में तल्लीन बन, उत्कट अन्त:प्रेरणा से प्रेरित हो विविध स्तोत्रों के माध्यम से ईश्वर का भावपूर्ण गुणगान, उनसे व्याकुल प्रार्थना, उनके सम्मुख अपने हृदय की आर्ति या वेदना का निवेदन करते आये हैं; तथा उनके रचित ये स्तोत्र समकालीन एवं परवर्ती काल के असंख्य मानवों के लिए चित्तशान्ति, विमल आनन्द तथा आध्यात्मिक उन्नति के साधनस्वरूप बने हुए हैं। इस प्रकार के स्तोत्र सभी भाषाओं में पाये जाते हैं, परन्तु संस्कृत साहित्य में स्तोत्रों का अपना अलग ही स्थान है। ‘स्तूयते अनेन इति स्तोत्रम्’ — ‘जिसके द्वारा स्तुति की जाए वह स्तोत्र है’ इस परिभाषा के अनुसार स्तोत्रों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। वेदों में हमें बहुविध विषयों के स्तोत्रों का विशाल भण्डार ही भरा मिलता है। अवश्य वैदिक स्तुतियाँ ‘सूक्त’ के नाम से प्रचलित हैं, पर स्तोत्र और सूक्त हैं समानार्थी ही। वैदिक सूक्त गद्यात्मक और पद्यात्मक उभयविध होते हैं। इनमें कुछ सूक्त पूर्णरूपेण आध्यात्मिक भावपूर्ण हैं तो कुछ में विभिन्न देवताओं से आयु, आरोग्य, बल, धन-धान्य, सुख-समृद्धि, शान्ति आदि ऐहिक वस्तुओं की याचना की गयी है; कुछ में ईश्वर की केवल स्तुति है तो कुछ में उनसे प्रसन्न हो पाप-ताप, संकट आदि से रक्षा करने के लिए प्रार्थना की गयी है। इस प्रकार प्रेय और श्रेय, अभ्युदय और नि:श्रेयस दोनों विषयों की प्रार्थना से पूर्ण अनेक सूक्त पाये जाते हैं।