बचपन से लेकर काफ़ी बाद तक कितने ही पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ा कि हमारा समाज बहुत भावुक है और पश्चिम बहुत भौतिकतावादी है। मगर व्यवहार में देखा कि हमारे यहां नये, पवित्र कहे जानेवाले, और जनम-जनम के कहे जानेवाले रिश्तों की नींव भी पैसे के आधार पर रखी जाती है, बाक़ी कोई भी रीति-रिवाज-त्यौहार लिफ़ाफ़ो के लेन-देन के बिना ज़रा-सा भी आगे नहीं सरकता।
और आगे चलकर जैसे-जैसे अपना सोचने, ख़ुदको ही डरानेवाले ख़्यालों पर ख़ुलकर विश्लेषण करने का होश और हिम्मत आते गए तो लगने लगा कि हमारी क़िताबों में लोगों ने अपनी आज़माई बातों के साथ सुनी-सुनाई और पढ़ी-पढ़ाई बातें भी अच्छी-ख़ासी मात्रा में लिख रखीं हैं। ऐसे और भी कुछ कारण रहे कि क़िताबों में पहले जैसी रुचि नहीं रह गई।
क़िताबों के प्रति भगवान-भक्त जैसी आस्था और श्रद्धा पैदा करने की कोशिशें अब ज़रा नहीं सुहातीं। क़िताब को लगभग मूर्ति, लेखक को लगभग भगवान बनाने और बिक्री को चढ़ौती की तरह हासिल करने की मानसिकता अजीब लगती है। क़िताबें ज़रुरी हैं, उपयोगी हैं, मगर लेखक कोई पवित्रता (?) की लाँड्री में से निकला मसीहा नहीं है कि उसके लिखे को पढ़ने के बजाय चरनामृत की तरह खोपड़े पर उड़ेलकर यह सोचा जाए कि इसमें से जो निकलेगा सब अंदर घुसकर अपने-आप कोई रास्ता बनाएगा और हमारे दिल-दिमाग़ को सिर्फ़ सच्चाई की ओर ही ले जाएगा। जैसा मैंने समाज को देखा है, मुझे तो बिलकुल भी नहीं लगता कि लेखक सिर्फ़ सच ही लिखता है। लेकिन हम अगर हिंदू-मुस्लिम या वाम-दक्षिण जैसे खानों में बंटे हो तो हमारे झूठ और सच को समझने के पैमाने पूर्वाग्रही हो ही जाते हैं।
अगर समाज की जड़ों तक पाखंड पसरा हो तो पाठक भी झूठ को सच की तरह ही पढ़ता है। जो लेखक शिक्षण संस्थाओं में पढ़ाई जानेवाली क़िताबों में शामिल होने के लिए सर के बल हो जाते हैं उनके द्वारा लिखे गए स्वाभिमान के निबंध में कितना दम और कितनी सच्चाई हो सकती है !?
तुलसीदास और मनुमहाराज के महाग्रंथ किसीके लिए छाती से लगाए रखने के क़ाबिल हैं तो दूसरे कई लोगों के लिए क़ाबिले-बर्दाश्त भी नहीं हैं।
क़िताबों के प्रति जागरुकता पैदा करनी चाहिए, श्रद्धा, आस्था और अंधभक्ति नहीं।
-संजय ग्रोवर
03-09-2014
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