प्रेमाश्रम (Hindi Sahitya): Premashram (Hindi Novel)

· Bhartiya Sahitya Inc.
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तुम्हारे धन और सम्पत्ति से दूसरे क्या लाभ उठाएँगे? हमने भोगविलास में जीवन नहीं बिताया। वह कुलमर्यादा की रक्षा थी। विलासिता यह है, जिसके पीछे तुम उन्मत्त हो। हमने जो कुछ किया नाम के लिए किया। घर में उपवास हो गया है, लेकिन जब कोई मेहमान आ गया तो उसे सिर और आँखों पर लेते थे तुमको बस अपना पेट भरने की, अपने शौक की, अपने विलास की धुन है। यह जायदाद बनाने के नहीं बिगाड़ने के लक्षण हैं। अन्तर इतना ही है कि हमने दूसरों के लिए बिगाड़ा तुम अपने लिए बिगाड़ोगे।

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About the author

 

प्रेमचन्द

जन्म :- 31 जुलाई, 1880।

जन्म-स्थान :- बनारस शहर से करीब चार मील दूर लमही नामक गाँव में।

वास्तविक नाम :- धनपतराय श्रीवास्तव।

शिक्षा :- मैट्रिक (द्वितीय श्रेणी में), बी.ए.।

निधन :- 8 अक्टूबर 1936।

मुंशी प्रेमचन्द का जन्म लमही नामक गाँव में हुआ। इनके पिता का नाम मुंशी अजायब लाल श्रीवास्तव था। पाँच-छः वर्ष की उम्र में प्रेमचन्द को लमही गाँव के करीब लालगंज नामक गाँव में एक मोलवी साहब के पास फारसी और उर्दू पढ़ने के लिए भेजा गया।

माँ के निधन के बाद, माँ जैसा कुछ-कुछ प्यार धनपत को अपनी बड़ी बहन से मिला। पर कुछ ही समय के पश्चात् शादी होने पर वह भी अपने घर चली गई। और अक्सर उसके पिता ढेर सारे काम के बोझ के कारण दबे रहते थे। अब धनपत की दुनिया एक प्रकार से सूनी हो गई। उनके लिए यह कमी इतनी गहरी और इतनी तड़पने वाली थी कि उन्होंने अपने उपन्यास और कहानियों के बार-बार ऐसे पात्रों की रचना की-जिनकी माँ बचपन में ही मर गई।

मातृत्व स्नेह से वंचित हो चुके, और पिता के देख-रेख से दूर रहने वाले बालक धनपत ने अपने लिए कुछ ऐसा रास्ता चुना जिस पर आगे चलकर वे ‘उपन्यास सम्राट’, ‘महान् कथाकार’, ‘कलम का सिपाही’, जैसी उपाधियों से विभूषित हुए।

चौदह वर्ष की उम्र में पिता के देहान्त के बाद उन पर रोजी-रोटी कमाने की चिन्ता सिर पर सवार हो गई। ट्यूशन कर-करके उन्होंने किसी प्रकार मैट्रिक की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की।

विवाह होने के बाद संयोग से उन्हें स्कूल की मास्टरी मिल गई। सन् 1899 से सन् 1921 तक वे मास्टरी के पद पर रहे और नौकरी करते हुए ही उन्होंने इण्टर और फिर बी.ए. पास किया।

प्रेमचन्द को उर्दू और हिन्दी दोनों ही भाषाओं में आधुनिक कहानी का जन्मदाता माना जाता है। उन्होंने लगभग तीन सौ कहानियाँ तथा चौदह सर्वश्रेष्ठ छोटे-बड़े उपन्यास लिखे।

गाँधी जी के आह्वान पर सरकारी नौकरी छोड़ने के कुछ महीनों पश्चात् उन्होंने मारवाड़ी स्कूल में काम किया, लेकिन वहाँ से इस्तीफा देकर वे ‘मर्यादा’ समाचार-पत्र’ में सम्पादन किया। कुछ समय के लिए काशी विद्यापीठ में पढ़ाया और ‘माधुरी’ के सम्पादन के लिए लखनऊ गये। छः-सात साल बाद मासिक पत्र ‘हंस’ के सम्पादन के लिए वापस बनारस आ गये। उन्होंने ‘जागरण’ भी निकाला। दोनों ही पत्रों में घाटा होने के कारण उनके ऊपर कर्ज़ का बोझ बढ़ गया। जिसको उतारने के लिए वे बम्बई भी गये। लेकिन साल-भर बाद वे वापस आ गये।

8 अक्तूबर, सन् 1936 को 56 वर्ष की आयु में जलोदर (ड्रॉप्सी) रोग से पीड़ित यह महान लेखक दुनिया से विदा हो गया, लेकिन अपनी अमूल्य कृतियों और रचनाओं की धरोहर छोड़कर वह हमेशा के लिए अमर हो गया।

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