“आयुर्वेद” शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है “आयु” एवं “वेद”
अर्थात जिस शास्त्र में आयु का वर्णन किया गया हो उसे आयुर्वेद कहा जाता है। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथो के अनुसार यह देवताओं द्वारा प्रयुक्त वह चिकित्सा पद्धति है जिसे तत्कालीन भरद्वाज आदि ऋषि मुनियों के निवेदन पर मानव कल्याण के लिए इन्द्र देवता द्वारा पृथ्वी के महान आचार्यों को दिया गया।
हिताहितं सुखं दुःखं आयुस्तस्य हिताहितम् ।
मानं च तच्च यत्रोक्तां आयुर्वेदः स उच्यते ।।
(च.सू. १/४१)
आयुर्वेद मूलत: एक चिकित्सा पद्धति होने के साथ- साथ एक जीवनचर्या है। यह न केवल मनुष्य की रुग्णावस्था को दूर करती है अपितु रोगों से कैसे बचा जाए इस पर भी चर्चा करती है।
भारत में चिकित्सा की पारंपरिक पद्धतियों का एक समृद्ध इतिहास है, जिनमें से आयुर्वेद सबसे प्राचीन, व्यापक रूप से स्वीकृत, अभ्यासित और विकसित पारंपरिक चिकित्सा पद्धति है। आयुर्वेद को दुनिया भर में स्वीकार की जाने वाली सबसे पुरानी पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में से एक माना जाता है। चिकित्सा की यह पद्धति इतनी गूढ़ है कि इसके अर्थ को पूरी तरह समझने के लिए अभी भी मनुष्य जाति को बहुत मेहनत करने की जरूरत है। चिकित्सा की इस पारंपरिक प्रणाली में प्राचीन ज्ञान अभी भी पूरी तरह से पता नहीं लगाया गया है।
आयुर्वेद के अंतर्गत ज्ञान के विस्तृत विवेचन के लिए आयुर्वेद को निम्न आठ भागों में विभक्त किया गया है जिन्हे अष्टांग आयुर्वेद के नाम से भी जाना जाता है।
कायचिकित्सा
कायचिकित्सानाम सर्वांगसंश्रितानांव्याधीनां ज्वररक्तपित्त-
शोषोन्मादापस्मारकुष्ठमेहातिसारादीनामुपशमनार्थम् ।
(सुश्रुत संहिता १/३)
कायचिकित्सा में सामान्य रूप से औषधि प्रयोग के द्वारा भिन्न भिन्न रोगों जैसे ज्वर, रक्तपित्त, शोष, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह, अतिसार आदि की चिकित्सा का वर्णन किया गया है।
शल्यतंत्र
शल्यंनामविविधतृणकाष्ठपाषाणपांशुलोहलोष्ठस्थिवालनखपूयास्राव
द्रष्ट्व्राणांतर्गर्भशल्योद्वरणार्थ यंत्रशस्त्रक्षाराग्निप्रणिधान्व्राण विनिश्चयार्थच।
(सु.सू. १/१)
शल्यतंत्र में विभिन्न प्रकार के विधियों जैसे अग्नि, क्षार, यंत्र, शस्त्र आदि के प्रयोग द्वारा की जाने वाली चिकित्सा का वर्णन किया गया है।
शालाक्य तंत्र
शालाक्यं नामऊर्ध्वजन्तुगतानां श्रवण नयन वदन घ्राणादि संश्रितानां व्याधीनामुपशमनार्थम्।
(सु.सू. १/२)
शालाक्यतंत्र में 'शलाका' सदृश यंत्रों एवं शस्त्रों के द्वारा गले से ऊपर के अंगों की चिकित्सा का वर्णन किया गया हैं। इसके अंतर्गत मुख्यत: नेत्र, कर्ण, मुख, नासिका आदि अंगों में उत्पन्न व्याधियों की चिकित्सा की जाती है।
कौमारभृत्य
कौमारभृत्यं नाम कुमारभरण धात्रीक्षीरदोषश् संशोधनार्थं
दुष्टस्तन्यग्रहसमुत्थानां च व्याधीनामुपशमनार्थम् ॥
(सु.सू. १/५)
कौमारभृत्य में बच्चों के रोग, स्त्रियों विशेषतः गर्भिणी स्त्रियों के रोग और विशेष स्त्रीरोग के साथ गर्भविज्ञान का वर्णन किया गया है।
अगद तंत्र
अगदतंत्रं नाम सर्पकीटलतामषिकादिदष्टविष व्यंजनार्थं
विविधविषसंयोगोपशमनार्थं च ॥
(सु.सू. १/६)
अगद तंत्र में विभिन्न स्थावर, जंगम और कृत्रिम विषों एवं उनके लक्षणों तथा चिकित्सा का वर्णन किया गया है।
भूतविद्या
भूतविद्यानाम देवासुरगंधर्वयक्षरक्ष: पितृपिशाचनागग्रहमुपसृष्ट
चेतसांशान्तिकर्म वलिहरणादिग्रहोपशमनार्थम् ॥
(सु.सू. १/४)
भूत विद्या में देवाधि ग्रहों द्वारा उत्पन्न हुए विकारों और उसकी चिकित्सा का वर्णन किया गया है।
रसायन तंत्र
रसायनतंत्र नाम वय: स्थापनमायुमेधावलकरं रोगापहरणसमर्थं च।
(सु.सू. १/७)
रसायन तंत्र में चिरकाल तक वृद्धावस्था के लक्षणों से बचते हुए उत्तम स्वास्थ्य, बल, पौरुष एवं दीर्घायु की प्राप्ति एवं वृद्धावस्था के कारण उत्पन्न हुए विकारों को दूर करने के उपाय का वर्णन किया गया हैं।
वाजीकरण
वाजीकरणतंत्रं नाम अल्पदुष्ट क्षीणविशुष्करेतसामाप्यायन
प्रसादोपचय जनननिमित्तं प्रहर्षं जननार्थंच।
(सु.सू. १/८)
वाजीकरण में शुक्रधातु की उत्पत्ति, पुष्टता एवं उसमें उत्पन्न दोषों एवं उसके क्षय, वृद्धि आदि कारणों से उत्पन्न लक्षणों की चिकित्सा आदि विषयों के साथ उत्तम स्वस्थ संतोनोत्पत्ति संबंधी ज्ञान का वर्णन किया गया हैं।
द्रव्यगुण
'द्रव्यगुण' दो शब्दों से मिलकर बना है - 'द्रव्य' तथा 'गुण'
अर्थात जिस शास्त्र में द्रव्यों का नाम, रूप, गुण, कर्म एवं प्रयोग का वर्णन किया गया है उसे द्रव्ययगुण शास्त्र कहा जाता है। यद्यपि अष्टाङ्ग आयुर्वेद में द्रव्यगुणविज्ञान को स्थान प्राप्त नहीं है फिर भी अष्टाङ्ग आयुर्वेद के संहि अंगों में इसकी व्यापकता के कारण इसे एक महत्त्वपूर्ण एवं अत्यधिक उपयोगी ग्रंथ माना जाता है।
द्रव्यगुण शस्त्र के अंतर्गत सप्त पदार्थों का वर्णन किया गया है ये सप्त पदार्थ इस प्रकार हैं
द्रव्य
यत्राश्रिताः कर्मगुणाः कारणं समवायि यत् । तद् द्रव्यम् ....
(च०सू० १/५१)
अर्थात जिसमें कर्म और गुण समवायी संबंध से एक दूसरे के आश्रित हो कर रहते हैं उसे द्रव्य कहा जाता है।
गुण
समवायी तु निश्चेष्टः कारणं गुणः ।।
(च०सू० १/५१)
जो द्रव्य में निश्चेष्ट होकर रहता है उसे गुण कहते हैं।
गुणों की कुल संख्या ४१ बताई गई है जिनमें से गुर्वादि गुण २०, परादि गुण १०, आध्यात्मिक गुण ६ एवं वैशेषिक गुण ५ बताए गए हैं।
रस
रस्यत आस्वाद्यत इति रसः।
(च०सू० १/६४-चक्र०)
रसेन्द्रीय (जिह्वा) द्वारा जिस विषय (स्वाद) का ज्ञान होता है उसे रस कहते हैं।
रस की संख्या ६ बताई गई है :- मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय।
विपाक
जाठरेणाग्निना योगाद्यदुदेति रसान्तरम्।
रसानां परिणामान्ते स विपाक इति स्मृतः ॥
(अ.ह.सू. ९/२०)
आहार एवं औषध द्रव्यों के खाने के पश्चात् महास्रोत में पाचन क्रिया से जठराग्नि, भौतिकाग्नियों द्वारा परिपाक के रूपान्तरित होने पर अन्त में जो रस या गुण विशेष की उत्पत्ति होती है, उसको विपाक कहते हैं।
सामान्यतया मधुर, अम्ल, कटु भेद से तीन प्रकार का विपाक माना जाता हैं।
वीर्य
वीर्यं तु क्रियते येन या क्रिया
(च०सू० २६/६५)
द्रव्य जिस विशिष्ट शक्ति से कार्य करते हैं उसे वीर्य कहते हैं। अन्य शब्दों में वीर्य के द्वारा ही कोई भी द्रव्य कार्य करने में सक्षम होता है।
सामान्यतया मधुर एवं शीत भेद से दो प्रकार के वीर्य माने गए हैं।
प्रभाव
रसवीर्यविपाकानां सामान्य यत्र लक्ष्यते।
विशेष: कर्मणां चैव प्रभावस्तस्य स स्मृतः ।।
(च.सू. २६/६७)
द्रव्य में रस, गुण, वीर्य, विपाक समान होंने पर भी उसकी विशिष्ट प्रकार की कार्य कर्तव्य शक्ति को प्रभाव कहते हैं ।
कर्म
संयोगेच विभागे च कारणं द्रव्यमाश्रितम् ।
कर्तव्यस्य क्रिया कर्म कर्म नान्यदपेक्षते ॥
(च.सू.९/५२)
जो संयोग विभाग में अनपेक्ष कारण या स्वतन्त्र कारण हो द्रव्य में आश्रित हो अगुण हो उसे कर्म कहते हैं ।
द्रव्यगुण शास्त्र में ६०० से अधिक द्रव्यों का वर्णन किया गया है । प्रस्तुत पुस्तिका में द्रव्ययगुण शास्त्र के महत्वपूर्ण द्रव्यों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है ।
हरियाणा में जन्मे डा विनोद रंगा आयुर्वेद के जाने माने चिकित्सक हैं । आपने अपनी बारहवीं तक की पढ़ाई हिसार से की तथा उसके बाद श्रीकृष्ण राजकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, कुरुक्षेत्र (हरियाणा) से आयुर्वेदाचार्य (आयुर्वेद स्नातक) एवं राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान, जयपुर (राजस्थान) से द्रव्य गुण में आयुर्वेद वाचस्पति (आयुर्वेद स्नातकोत्तर) की उपाधि प्राप्त की। आप ग्रेजुएशन के दौरान से ही आयुर्वेद के प्रचार प्रसार के क्षेत्र में सक्रिय रहें हैं l द्रव्यगुण के प्रति आपके लगाव के कारण आप भारत के भिन्न भिन्न स्थानों पर भ्रमण कर चुके हैं तथा आपने वहां के स्थानिक द्रव्यों का काफी करीब से अध्ययन किया है। आपके फेसबुक पर भी पेज एवम ग्रुप हैं जहां पर आप आयुर्वेद से संबंधित सामग्री पोस्ट करते रहते हैं। आप वर्तमान में माई भागो आयुर्वेद महाविद्यालय, श्री मुक्तसर साहिब (पंजाब) में प्रधानाचार्य, विभागाध्यक्ष एवम प्राचार्य (द्रव्यगुण) के पद पर कार्यरत है ।
आपकी यह लघु पुस्तिका विद्यार्थियों के अनुरोध पर प्रकाशित हुई प्रथम पुस्तक है जिसमें द्रव्यगुण के कुछ महत्वपूर्ण द्रव्यों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है जो कि विद्यार्थियों के लिए परीक्षा के संदर्भ में बहुत ही लाभदायक है ।