अमृतवाणी - भाग ६: गूढ़ पदों के सन्देश

· Amritvani 6. kötet · Shree Paramhans Swami Adgadanandji Ashram Trust
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श्री स्वामी जी की अमृतवाणी - ‘संत कबीर, मीराबाई’

संत कबीर की वाणी समझ में न आने पर भी उसका लगाव कम नहीं होता क्योंकि जिस सत्य का उन्होंने वर्णन किया है, वह अनुभव गम्य है, वह वाणी से समझाने में नहीं आता। अभ्यास के परिणाम में जब वह दृश्य स्पष्ट देखने में आ जाता है, तभी समझ में आता है। संत कबीर का कथन है-

‘‘हम कही आँखिन की देखी,

तुम कहो कागज की लेखी।

मोर तोर मनवा एकै कैसे होय।’’


अतः सबके लिए एक परमात्मा की शरण, एक नाम का जाप और अभ्यास अपेक्षित है।

पूज्य स्वामी श्री अड़गड़ानन्दजी महाराज के मुखारविन्द से नि:सृत अमृतवाणियों का संकलन

1. रस गगन गुफा से अजर झरै

2. अब हम दोनों कुल उजियारी

3. अनेकों प्रश्न ऐसे हैं जो दुहराये नहीं जाते

4. तोड़ना टूटे हुए दिल को बुरा होता है

5. सिद्ध है सोइ अतीत कहावै

6. पायो जी मैंने नाम रतन धन पायो

7. राम कहत चलु भाई रे

8. सद्गुरु की हाट अलग लागी

।। ॐ ।।

- Sant Kabir / Kabirdas, Mirabai / Meera Bai, Kabir Ke Dohe.

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A szerzőről

यथार्थ गीता के प्रणेता

योगेश्वर सद्गुरु श्री अड़गड़ानन्द जी महाराज।।

जीवन परिचय


स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी महाराज सत्य की शोध में इतस्ततः विचरण करते तेईस वर्ष की आयु में नवम्बर 1955 ई. को परमहंस स्वामी श्री परमानन्दजी की शरण में आये। श्री परमानन्द जी का निवास चित्रकूट, अनुसूइया, सतना मध्यप्रदेश (भारत) के घोर जंगल में रहा है, जो हिंसक जीव-वस्तुओं का निवास है। ऐसे निर्जन अरण्य में बिना किसी व्यवस्था के उनका निवास, घोषित करता है कि वे एक सिद्ध महापुरुष थे।

पूज्य परमहंस जी को आपके आगमन के संकेत वर्षों पूर्व ही मिलने लगे थे। जिस दिन आप आये परमहंस जी को ईश्वरीय निर्देश मिला, जिसे भक्तों से बताते हुए उन्होंने कहा कि एक बालक भवसरिता से पार जाने के लिए विकल है, आता ही होगा। आप पर दृष्टि पड़ते ही उन्होंने बताया कि वह बालक यही है। गुरू निर्देशन में चलते हुए, साधना के चरमोत्कर्ष पर परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन कर, आप उसी परमात्म भाव को प्राप्त महापुरुष हैं।

आपकी शैक्षिक उपाधियाँ तो कोई भी नहीं, लेकिन सद्गुरु- कृपा से पूर्णता प्राप्त कर मानवमात्र के कल्याण में रत हैं... ‘सर्वभूतहितरतं।’ लेखन को आप साधन-भजन में व्यवधान मानते रहे हैं किन्तु गीता भष्य ‘यथार्थ गीता’ के प्रणयन में ईश्वरीय निर्देशन ही निमित्त बना।

भगवान ने आपको अनुभव में बताया कि आपकी सारी वृत्तियाँ शान्त हो चुकी हैं, केवल छोटी-सी एक वृति शेष है, गीताज्ञान के आशय का यथावत् पुनप्रकाशन! पहले तो आपने इस वृत्ति को भजन से काटने का प्रयास किया किन्तु... भगवान के आदेशों का मूर्तरूप है- ‘यथार्थ गीता’। यथार्थ गीता के रचना काल में भाष्य में जहां भी त्रुटि होती, भगवान उसे सुधार देते थे! पूज्यश्री की ‘स्वान्तः सुखाय’ यह कालजवी कृति सर्वान्तः सुखाय हो चली है। आर्यावर्त भारत ही नहीं विश्व के मानवमात्र के कल्याण में रत है, संलग्न है।

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